जुलाई 1905 के बंगाल के विभाजन की प्रतिक्रिया स्वरुप स्वदेशी आंदोलन का आरंभ हुआ परंतु इसके और भी अनेक कारण थे अब यह स्पष्ट हो गया था कि प्रारंभिक नरमपंथी राष्ट्रवादियों के संवैधानिक दृष्टिकोण तथा विदेशी शासकों के प्रति सआशयपूर्ण विश्वास से किसी को कोई लाभ नहीं हो रहा था।
सरकार का व्यवहार अब और अधिक संदेहजनक बन गया था और अधिकारीगण और अधिक नस्लीय व्यवहार करने लगे थे यहां तक कि नरमपंथीयों की सबसे अधिक संगत मांगों को भी एक सिरे से खारिज कर दिया गया था वास्तव में वायसराय लॉर्ड कर्जन का शासन राष्ट्रवादियों की उम्मीदों से एकदम विपरीत था।
1899 में कर्जन ने कोलकाता कि निगम में चुने हुए सदस्यों की संख्या कम कर दी थी इसी प्रकार 1904 में कोलकाता विश्वविद्यालय की सीनेट में चुने हुए सदस्यों की संख्या में कमी कर दी गई वायसराय ने भारतीय प्रतिनिधियों की संख्या में कमी करने के लिए यह उपाय लागू किए थे इसमें सबसे निकृष्ट उपाय जुलाई 1950 में बंगाल का विभाजन करना था।
कुछ समय से औपनिवेशिक सरकार बढ़ते हुए राष्ट्रवादी आंदोलन को रोकने के लिए बंगाल के विभाजन के संबंध में विचार कर रही थी दिसंबर 1930 में विभाजन के प्रस्ताव की लोगों को जानकारी मिली इस निर्णय के विरुद्ध तत्काल विरोध प्रकट किया गया 1904 में पूरे वर्ष और 1905 के प्रथम छह महीनों में बंगाल में लगातार बैठक होती रही और इस प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने के लिए सरकार के समक्ष अनेक प्रतिवेदन रखे गए बरहाल सरकार विभाजन के लिए निर्णय पर अड़ी रही और 19 जुलाई 1950 को बंगाली बोली जाने वाली भाषा के आधार पर प्रादेशिक विभाजन कर दिया गया।